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South Africa Dominates England in First ODI: Markram's Blitz and Maharaj's Spin Lead to Historic Win

  🏏 Match Overview: South Africa 's Commanding Victory In a remarkable display of skill and strategy, South Africa defeated England by 7 wickets in the first ODI at Headingley, Leeds , on September 2, 2025. Chasing a modest target of 132, South Africa reached 137/3 in just 20.5 overs, with 175 balls to spare. This victory marks a significant achievement, as it was South Africa's first-ever ODI win at this venue. 🔥 Aiden Markram's Record-Breaking Innings South Africa's vice-captain, Aiden Markram , delivered a blistering performance, scoring 86 runs off just 55 balls. His innings included a record-setting 23-ball half-century, the fastest by a South African opener in ODIs. Markram's aggressive approach set the tone for the chase, ensuring a swift and decisive victory. 🧙‍♂️ Keshav Maharaj's Spin Magic Spinner Keshav Maharaj was instrumental in dismantling England's batting lineup, taking 4 wickets for 22 runs. His tight lines and variations...

वेद क्या है ? इनकी रचना किसने की ? वेद कितने है ? कौनसे वेद में क्या - क्या लिखा है ? जानिए वेदों के बारे में | Original Vedas in Hindi

वेद क्या है ? इनकी रचना किसने की ? वेद कितने है ? कौनसे वेद में क्या - क्या लिखा है ? जानिए वेदों के बारे में | Original Vedas in Hindi


हिन्दू धर्म शास्त्र के अनुसार वेदो को सबसे पौराणिक ग्रंथ माना गया है। वेद शब्द का शाब्दिक अर्थ ज्ञान से है। वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से बना है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।



वेदों को स्वम ईंश्वर के द्वारा लिखित माना जाता है और इनकी उतप्ति ब्रह्मा से मानी जाती है। वेदों को समझना प्राचीन काल में भारतीय और बाद में विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः अंगों- शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष के अध्ययन और उपांगों जिनमें छः शास्त्र- पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य, और वेदांत व दस उपनिषद्- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडुक्य, ऐतरेय, तैतिरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक आते हैं। प्राचीन समय में इनको पढ़ने के बाद वेदों को पढ़ा जाता था। प्राचीन काल के , वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है।


वेदों का अवतरण काल वर्तमान सृष्टि के आरंभ के समय का माना जाता है। इसके हिसाब से वेद को अवतरित हुए 2017 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत 2074) को 1,96,08,53,117 वर्ष होंगे। वेद अवतरण के पश्चात् श्रुति के रूप में रहे और काफी बाद में वेदों को लिपिबद्ध किया गया और वेदों को संरक्षित करने अथवा अच्छी तरह से समझने के लिये वेदों से ही वेदांगों का आविष्कार किया गया। इसमें उपस्थित खगोलीय विवरणानुसार कई इतिहासकार इसे 5000 से 7000 साल पुराना मानते हैं परंतु आत्मचिंतन से ज्ञात होता है कि जैसे सात दिन बीत जाने पर पुनः रविवार आता है वैसे ही ये खगोलीय घटनाएं बार बार होतीं हैं अतः इनके आधार पर गणना श्रेयसकर नहीं।


वेद हमें ब्रह्मांड के अनोखे, अलौकिक व ब्रह्मांड के अनंत राज बताते हैं जो साधारण समझ से परे हैं। वेद की पुरातन नीतियां व ज्ञान इस दुनिया को न केवल समझाते हैं अपितु इसके अलावा वे इस दुनियां को पुनः सुचारू तरीके से चलाने में मददगार साबित हो सकते हैं।


वेद कुल चार है - ऋग्वेद - यजुर्वेद - सामवेद - अथर्ववेद


सबसे पहले 1 ही वेद था इसके बाद इन्हे तीन भागों में बांटा गया और बाद में इनमें "अथर्ववेद" को जोड़ा गया। जब "ऋग्वेद" काल की सभ्यता भारत भूमि पर रहती थी उस समय केवल ऋग्वेद ही होता था। 


अंग्रेजो ने हम सभी को गलत इतिहास पढ़ाया और वेदो में भी फेर - बदल कर के इन्हें परिवर्तन कर दिया। साथ में उनका मानना है की आर्य कही बाहर से आए थे। उन्होंने यानी हम सब ने भारत पर कब्जा किया है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है क्योकि अब "सिंधु घाटी सभ्यता" में यह प्रणाम मिल चुके है की यह भूमि हमेशा से ही सनातनियों की रही है। इसका प्रमाण वेद भी है। क्योकि वेद की उतप्ति सृष्टि के समय से ही लगाई जाती है। 


वैदिक परम्परा दो प्रकार की है - ब्रह्म परम्परा और आदित्य परम्परा। दोनों परम्पराओं में वेदत्रयी परम्परा प्राचीन काल में प्रसिद्ध थी। विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन शैलियाँ होती हैं: पद्य (कविता), गद्य और गान। वेदों के मंत्रों के 'पद्य, गद्य और गान' ऐसे तीन विभाग होते हैं -


वेद का पद्य भाग - ऋग्वेद


वेद का गद्य भाग - यजुर्वेद


वेद का गायन भाग - सामवेद


- ऋग्वेद


यह सबसे प्राचीन ग्रंथ है। इसे पद्द शैली (कविता के रूप में) लिखा गया है। इसमें 10 मंडल है, 1028 सूक्त, 10580 ऋचाएं है। दूसरे प्रकार से ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं। आठ-आठ अध्यायों को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक हैं। फिर प्रत्येक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या 2024 है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते हैं। सृष्टि के अनेक रहस्यों का इनमें उद्घाटन किया गया है। पहले इसकी 21 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में इसकी शाकल शाखा का ही प्रचार है।


इसके आलावा ऋग्वेद में हवन द्वारा चिकित्सा, जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, मानस चिकित्सा की जानकारी भी दी गई है। ऋग्वेद के 10 मंडल में ओषधियों की जानकारी मिलती है। इसमें दवाओं के बारे में विस्तार से बताया गया है। इसमें 125 प्रकार की ओषधियों के बारे में बताया गया है। यह 107 स्थानों पर ही पाई जाती है। इसमें शरीर को फिर से युवा करने के बारे में भी बताया गया है। 


- यजुर्वेद


यजुर्वेद शब्द यत + जु = यजु से मिलकर बना है। यत का अर्थ गतिशील और जु का अर्थ आकाश होता है। इस प्रकार यजुर्वेद का अर्थ आकाश में गतिशील होने से है। 


इसमें अच्छे कर्म करने पर जोर दिया गया है। यजुर्वेद में यज्ञ करने की विधियों और प्रयोगो पर जोर दिया गया है। इसमें तत्व विज्ञान के बारे में भी जानकारी मिलती है। यजुर्वेद में ब्राह्मण, आत्मा, ईश्वर और प्रदार्थ के ज्ञान के बारे में जानकारी मिलती है। यजुर्वेद की दो शाखाएं है कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद दक्षिण भारत में और शुक्ल यजुर्वेद उत्तर भारत में प्रचलित है। यजुर्वेद में कुल 18 कांड है 3988 मंत्र है। 


- सामवेद


सामवेद का शाब्दिक अर्थ रूपांतरण, संगीत, सौम्यता और उपासना से है। सामवेद में ऋग्वेद की रचनाओं को संगीतमय रूप में प्रस्तुत किया गया है। सामवेद को गीतात्मक (गीतों के रूप में ) लिखा गया है। इसमें 1824 मंत्र  है।  जिसमे इंद्र, सविता, अग्नि जैसे देवताओ का वर्णन है। सामवेद की तीन शाखाएँ है। इसमें 75 ऋचाएं है। 


- अथर्ववेद


अथर्ववेद शब्द थर्व + अथर्व शब्द से मिलकर बना है। थर्व का अर्थ कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन से है। इस वेद में रहसयमयी विधाएँ, चमत्कार, जादू टोन, आयुर्वेद जड़ी बूंटिया का वर्णन मिलता है। इसमें कुल 20 अध्याय में 5687 मंत्र है। 


अथर्ववेद आठ खंड में विभाजित है। अथर्ववेद का विद्वान् चारों वेदों का ज्ञाता होता है। यज्ञ में ऋग्वेद का होता देवों का आह्नान करता है, सामवेद का उद्गाता सामगान करता है, यजुर्वेद का अध्वर्यु देव:कोटीकर्म का वितान करता है तथा अथर्ववेद का ब्रह्म पूरे यज्ञ कर्म पर नियंत्रण रखता है।


- पहले तीनों वेदो के ज्ञाता को त्रिवेदी कहा जाता था। 


- सबसे प्राचीन मंत्र "गायत्री मंत्र" ऋग्वेद से लिया गया है। 


वेदों के कई शब्दों का समझना उतना सरल नहीं रहा है। वेदों का वास्तविक अर्थ समझने के लिए इनके भितर से ही वेदांङ्गो का निर्माण किया गया | इसकी वजह इनमें वर्णित अर्थों को जाना नही जा सकता | सबसे अधिक विवाद-वार्ता ईश्वर के स्वरूप, यानि एकमात्र या अनेक देवों के सदृश्य को लेकर हुआ है। वेदों के वास्तविक अर्थ वही कर सकता है जो वेदांग- शिक्षा,कल्प, व्याकरण, निरुक्त,छन्द और ज्योतिष का ज्ञाता है। यूरोप के संस्कृत विद्वानों की व्याख्या भी हिन्द-आर्य जाति के सिद्धांत से प्रेरित रही है। प्राचीन काल में ही इनकी सत्ता को चुनौती देकर कई ऐसे मत प्रकट हुए जो आज भी धार्मिक मत कहलाते हैं लेकिन कई रूपों में भिन्न हैं। इनका मुख्य अन्तर नीचे स्पष्ट किया गया है। उनमे से जिसका अपना अविच्छिन्न परम्परा से वेद,शाखा,और कल्पसूत्रों से निर्देशित होकर एक अद्वितीय ब्रह्मतत्वको ईश्वर मानकर किसी एक देववाद मे न उलझकर वेदवाद में रमण करते हैं वे वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म मननेवाले है वे ही वेदों को सर्वोपरि मानते है। इसके अलावा अलग अलग विचार रखनेवाले और पृथक् पृथक् देवता मानने वाले कुछ सम्प्रदाय ये हैं-:


जैन - इनको मूर्ति पूजा के प्रवर्तक माना जाता है। ये वेदों को श्रेष्ठ नहीं मानते पर अहिंसा के मार्ग पर ज़ोर देते हैं।


बौद्ध - इस मत में महात्मा बुद्ध के प्रवर्तित ध्यान और तृष्णा को दुःखों का कारण बताया है। वेदों में लिखे ध्यान के महत्व को ये तो मानते हैं पर ईश्वर की सत्ता से नास्तिक हैं। ये भी वेद नही मानते |


शैव - वेदों में वर्णित रूद्र के रूप शिव को सर्वोपरि समझने वाले। अपने को वैदिक धर्म के मानने वाले शिव को एकमात्र ईश्वर का कल्याणकारी रूप मानते हैं, लेकिन शैव लोग शंकर देव के रूप (जिसमें नंदी बैल, जटा, बाघंबर इत्यादि हैं) को विश्व का कर्ता मानते हैं।


शाक्त - अपनेको वेदोक्त मानते तो है लेकिन् पूर्वोक्त शैव,वैष्णवसे श्रेष्ठ समझते है, महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वतीके रुपमे नवकोटी दुर्गाको इष्टदेवता मानते है वे ही सृष्टिकारिणी है ऐसा मानते है।


सौर - जगतसाक्षी सूर्य को और उनके विभिन्न अवतारों को ईश्वर मानते हैं। वे स्थावर और जंगमके आत्मा सूर्य ही है ऐसा मानते है।


गाणपत्य - गणेश को ईश्वर समझते है। साक्षात् शिवादि देवों ने भी उनकी उपासना करके सिद्धि प्राप्त किया है, ऐसा मानते हैं।


सिख - इनका विश्वास एकमात्र ईश्वर में तो है, लेकिन वेदों को ईश्वर की वाणी नहीं समझते हैं।


आर्य समाज - ये निराकार ईश्वर के उपासक हैं। ये वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं। ये मानते हैं कि वेद आदि सृष्टि में अग्नि, वायु, आदित्य तथा अङ्गिरा आदि ऋषियों के अन्तस् में उत्पन्न हुआ। वेदों को अंतिम प्रमाण स्वीकार करते हैं। और वेदों के अनन्तर जिन पुराण आदि की रचना हुई इनको वेद विरुद्ध मानते हुए अस्वीकार करते हैं। रामायण तथा महाभारत के इतिहास को स्वीकार करते हैं। इस समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द हैं जिन्होंने वेदों की ओर लौटने का संदेश दिया। ये अर्वाचीन वैदिक है।


- ऊँ शब्द भी वैदिक है अति प्राचीन है यह भी वेदो से ही आया है। 


ऊँ की महिमा


तीन अक्षरों अ, ऊ और म से मिलकर बना है ऊँ. इस लिहाज से इसे ईश्वर के तीन स्वरूपों- ब्रह्मा, विष्णु, और महेश का संयुक्त रूप कहा जाता है. यानी ऊँ में ही सृजन, पालन और संहार शामिल हैं. तभी ऊँ को स्वयं ईश्वर का ही स्वरूप माना गया है। 


वैदिक वाङ्मय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है। इसी प्रकार बौद्ध पन्थ तथा जैन सम्प्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति देखी जाती है। 


गुरु नानक जी का शब्द एक ओंकार सतनाम बहुत प्रचलित तथा शत्प्रतिशत सत्य है। एक ओंकार ही सत्य नाम है। राम, कृष्ण सब फलदायी नाम ओंकार पर निहित हैं तथा ओंकार के कारण ही इनका महत्व है। बाँकी नामों को तो हमने बनाया है परंतु ओंकार ही है जो स्वयंभू है तथा हर शब्द इससे ही बना है। हर ध्वनि में ओउ्म शब्द होता है।


ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली। कोशीतकी ऋषि निस्संतान थे, संतान प्राप्तिके लिए उन्होंने सूर्यका ध्यान कर ॐ का जाप किया तो उन्हे पुत्र प्राप्ति हो गई।


गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में उल्लेख है कि जो "कुश" के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।


सिद्धयन्ति अस्य अर्थाः सर्वकर्माणि च


श्रीमद्भागवत् में ॐ के महत्व को कई बार रेखांकित किया गया है। इसके आठवें अध्याय में उल्लेख मिलता है कि जो ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है।

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